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પુતના લીલા

क्या इनको कंस नहीं कहा जा सकता है?

पूतना जब नन्दभवन(हवेली)में घुस रही थी तब वहां गोप-गोपिएं मौजूद थीं. पर पूतनाके मायावी नकली सौन्दर्य(ग्लोबल रिलिजन) से वहां खडे सब लोग उसपर मुग्ध हो गये. गोप(वैष्णव) तो उसके नयनकटाक्षसे कामासक्त होकर ऐसे घायल हो गये कि अपने होशोहवास खो बैठे. गोपिओंको(कौन? आप खुद ही सोच लीजिये!) लगा कि ये तो साक्षात् लक्ष्मीजीको भगवानने भोगकेलिये बुलाया है. इस तरह सभी बाधाओंको पार करती हुई पूतना ठाकुरजी तक (हवेली) पहूंच गई.

सवाल यह है कि भगवानके बिराजते वह राक्षसी भगवान् तक पहूंची कैसे? श्रीवल्लभाचार्य सुबोधिनीमें समझाते हैं कि अपने ठाकुरजीके बारेमें ऐसी बेफिक्री भक्तिभावका नाश करनेवाली है. अपने सेव्य प्रभुके विषयमें जरासी भी लापरवाही सारे जन्मकी भक्तिसाधनाको नष्ट कर देती है. इसी लिये श्रीहरिरयाजी लिखते हैं कि अवैष्णव यदि ठाकुरजीके दर्शन कर लेता है तो सेवा करनेवालेकी एक सालकी सेवा निष्पल हो जाती है और ठाकुरजी छू जाते हैं. ऐसा होने पर ठाकुरजीको पञ्चामृत स्नान कराकर शुद्ध करना चाहिये जैसे पूतनाके संसर्ग हो जानेके कारण यशोदाजी आदिने ठाकुजीको गोबर-गोमूत्रसे स्नानादि कराकर शुद्ध किया था. हवेलियोंमें ठाकुरजीका धंधा करनेवालोंको दीनतासागर श्रीहरिरायजीकी यह आज्ञा स्वीकार्य होगी क्या? अवतार समयमें भगवानने पूतनाको अपने तक आने दे कर हमें यह सीख दी है कि अगर तुम मेरे बारेमें यशोदाजी और गोपी-गोपोंकी तरह बेफिक्र हो जाओगे तो तुम्हारे नन्दालयमें भी पूतना आ जायेगी.

श्रीवल्लभाचार्य लिखते हैं कि पूतना कृष्णको उठा गई और उसको मार डालनेका प्रयत्न करने लगी इस घटनासे व्रजवासियोंने यह सीख ली कि आजके बाद हम कृष्णके बारेमें कभी बेफिक्र नहीं रहेंगे, किसी पूतनाके झांसेमें नहीं आएंगे, कृष्णको कभी नजरसे ओझल होने नहीं देंगे, कृष्णको सदा परदेमें रखेंगे.

इससे उलटा पुष्टिमेार्गके ग्लोबलाईजेशन के चक्करमें, व्रजाधिपकी सेवाका पाखंड करनेवाले गोस्वामी और प.भ. वैष्णव आज श्रीवल्लभाचार्यके नामपर क्या कर रहे हैं यह कहनेकी जरूरत है?

आज तो पर्चे छपवा छपवा कर पूतनाओंको, बकासुरोंको, अघासुरोंको इनवाईट किया जा रहा है!

क्या इनको कंस नहीं कहा जा सकता है?

इसीलिये तो कडी-कोटाके समस्त गोस्वामीओंने मिलकर यह घाषणा की है कि “गोस्वामीओंको कृष्णसेवा अपने घरमें ही करनी चाहिये, सार्वजिनक तौरपर सेवा करना घोर धामिक अपराध है. ठाकुरजीकेलिये किसी भी प्रकारका भेट-चढावा मांगना या स्वीकारना शास्त्रमें निषिद्ध है. ठाकुरजीको रकी गई भेंटके बदलमें मिलता प्रसाद देवद्रव्यका होनेसे उसे खानेवाला नर्कमें जाता है”.

क्या ये सब सिद्धान्त आज हमको मान्य हैं. यदि मान्य हैं तो बेवकूफ पुष्टिमार्गीओंको देवद्रव्यका प्रसाद खवाकर नरकमें क्यों डाला जा रहा है?

क्यों गोस्वामीलोग जानबूजकर श्रीवल्लभाचार्यके आदेशोंका अपमान बेशर्मीसे कर रहे हैं?

क्या वल्लभाचार्यके आदेशोंसे विपरीत जाने पर “पुष्टिमार्ग” शब्दका इस्तेमाल किया जा सकता है?

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